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पञ्चाङ्गुल / हस्तक का साहित्यिक, अभिलेखीय और कलात्मक विवरण!!!

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 भारत में प्राचीन काल से लेकर आज तक पंचाङ्गुल या हस्तक के अंकन की प्रथा रही है। पंचाङ्गुल या हस्तक का अर्थ हाथ के छापों के अंकन से है। ये छापे विभिन्न रंगों, सिंदूर, हल्दी आदि में हाथ डुबोकर लगाये जाते हैं।  ये छापे विभिन्न धार्मिक कार्यों, विवाहादि उत्सवों, धार्मिक और विभिन्न स्थलों पर लगाए जाते हैं। इन्हें शुभ प्रतीक के रुप में देखा जाता है। इन्हें लक्ष्मी जी, दुर्गा जी आदि देवियों या विभिन्न देवों और महापुरुषों के हस्त चिह्नों के रुप में भी देखा जाता है। जैसे चरण चिह्नों का अंकन होता है, उसी प्रकार हस्त चिह्नों का भी अंकन होता है।  हम यहाँ हस्तक या पंचाङ्गुल के कुछ साहित्यिक, अभिलेखीय और कलात्मक अंकन देखेगें।  मृच्छकटिकम् के अनुसार यज्ञ पशु के ऊपर रक्त चंदन से हस्तक के निशान लगाने का वर्णन है -  "सर्वगात्रेषु विन्यस्तैः रक्तचन्दन हस्तकैः। पिष्टचूर्णावकीर्णेश्च पुरुषो अहंपशूकृतः॥" - मृच्छकटिकम् १०.५  हस्तक के चिह्न के प्रमाण हमें भारत में मध्य पाषाण काल से मिलने लगते हैं। मिर्जापुर के शैलचित्रों में अनेकों हाथों के चिह्न प्राप्त होते हैं -  - Rock Art of India, Pl. no. 70,

सिरपुर (छत्तीसगढ़) से प्राप्त देवी पार्वती जी की एक रोचक प्रतिमा!!!

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 प्रतिमा निर्माण शिल्प कला का एक बेजोड़ उदाहरण है। अनेकों प्रतिमाओं की कलात्मकता मन को हर लेती हैं। कुछ प्रतिमाओं में जीवनोपयोगी शिक्षाऐं भी होती है। अनेकों प्रतिमाएं बहुत ही दुर्लभ और रोचकता लिए होती है। ऐसी ही अत्यंत दुर्लभ और रोचक प्रतिमा है, सिरपुर से प्राप्त देवी पार्वती की प्रतिमा।  आप इस प्रतिमा का चित्र देखिए -  - Sclupture Art Of Sirpur, Plate LIV, C , page no. 202  इस प्रतिमा में देवी पार्वती के साथ - साथ अनेकों वस्तुओं और प्राणियों का लघु चित्रण भी हुआ है। प्रतिमा के दायीं ओर शुभ सूचक प्रतीक है ंं जैसे - यज्ञकुंड, शिवलिंग,कच्छप। इसी प्रकार बायीं ओर भी शुभ सूचक चिन्ह हैं जैसे - श्री गणेश जी, परिचारिका, नीचें की ओर सिंह और एक शुभ शकुन सूचक छिपकली।  प्रतिमा के ऊपर की ओर दो चक्रों के मध्य मातृकाओं के शीर्षों को दिखलाया गया है। मुख्य देवी पार्वती जी को द्विभुज और कमलासन पर खड़ा दर्शाया गया है। अनेकों प्रतिकों सहित यह दुर्लभ प्रतिमा लगभग ६ - ७ शताब्दी की है।  प्रतिमा में शकुन शास्त्र का प्रयोग भी दृष्टिगोचर होता है। इसमें बायीं ओर छिपकली की आकृति इस बात का संकेत भी करती है।  फलित

प्राचीन भारत में दंतकार (हाथी दांत के कारीगर)

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 भारत प्राचीनकाल से ही शिल्पियों का देश रहा है। यहां शिल्पियों द्वारा इतिहास में अनेकों अद्भूत निर्माण किये गये हैं। इनके अनेकों विभाग भी हैं जैसे - कांस्यकार, लौहकार, कुम्भकार, रथकार, चित्रकार, स्वर्णकार, रुपकार, रुप्यकार और दंतकार आदि।  यहां हम आज दंतकार के विषय में बात करेगें। दंतकार से तात्पर्य दंत से रुपादि निर्माण करने वाला कारीगर। यहां दंत से तात्पर्य हाथी के दांत से लिया जाता है। आज भी देश के अनेकों स्थानों पर हाथी दांत से बने आभूषणों का अत्यंत महत्व है। दंतकारों के अभिलेखीय साक्ष्य हमें सांचि के स्तूप के एक फलक से प्राप्त से होता है, जहां दंतकार द्वारा दान देने का उल्लेख है -  - Sanchi Through Inscription (@C - ASI Bhopal)  इस पर ब्राह्मी लिपि में - "वेदस के हि दंतकारे हि रुपकंम कतं" लिखा है। जो कि विदिशा के दंतकार का शुंग कालीन अभिलेखीय साक्ष्य है। दूसरा अभिलेखीय साक्ष्य ११ शताब्दी के बंगला लिपि के भटेरा ताम्रलेख पर मिलता है, जो कि राजा गोविंद केशवदेव के कार्यकाल में लिखवाया गया था। अभिलेख की 51 वीं पंक्ति में दंतकार का उल्लेख है - "दि गृह ३ सिहाडवग्रामे दन्तक

प्राचीन काल का समय मापक यंत्र - घटियंत्र (नाड़ी यंत्र)!!!

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 प्राचीन काल से ही लोग समय को ज्ञात करने के लिए विभिन्न पद्धतियों का प्रयोग करते आ रहे हैं। ये पद्धतियां मुख्यत: आकाशीय पिण्डों की गति और पृथ्वी से उसकी स्थिति पर आधारित रही है। किंतु अनेकों बार कृत्रिम साधनों का भी प्रयोग समय मापन में किया जाता था। समय मापने वाले ये कृत्रिम साधन घटी या घड़ी कहे जाते थे। प्राचीन काल में घड़ी सूर्य के प्रकाश और जल पर आधारित बनाई जाती थी।  दिन के समय में धूप घड़ी या सूर्य घड़ी के द्वारा समय का ज्ञान किया जाता था किंतु रात्रि के समय जल घड़ी के द्वारा समय ज्ञान किया जाता था। जल घड़ी को ही घटियंत्र या नाडीयंत्र भी कहा जाता है। इससे न केवल रात्रि अपितु दिन में भी समय ज्ञान हो जाता था। घडियंत्र को नाड़ी यंत्र अथवा नाडिक इसलिए भी कहा जाता है क्योंकि इसमें समय मापन का मात्रक "नाड़ी" शब्द से प्रयोग किया गया है। इस यंत्र का वर्णन वराहमिहिर ने 'पञ्चसिद्धान्तिका' में इस प्रकार किया है -  "द्युनिशिविनः सृततोयादिष्टच्छिद्रेण षष्टिभागो यः। सा नाड़ी स्वमतो वा श्वासाशीतिः शतं पुंसः॥३१॥ कुम्भार्धाकारं ताम्रं पात्रं कार्यं मूले छिद्रं स्वेच्छे तोये

सिन्धु - सरस्वती सभ्यता में अंगूठियों का प्रयोग !!!

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आज इस लेख में हम सिंधु सरस्वती सभ्यता में अंगुठियों के प्रयोग के बारे में जानेगें। क्योंकि कुछ लोगों का मानना है कि अंगुठियों का प्रचलन भारत में मौर्यकाल से पहले नहीं था। हालांकि संस्कृत साहित्यों में अंगूठी के लिए मुद्रिका, अङ्गुलिय जैसे शब्दों का प्रयोग देखने को मिलता है। वाल्मीकि रामायण में भी अंगूठी का उल्लेख प्राप्त होता है - "रामनामाङ्कित चेदं पश्य देव्यङ्गुलीयकम् " - वा. रा. सुन्दरकाण्ड, सर्ग ३६, श्लोक २  इससे अंगूठी प्रचलन की प्राचीनता ज्ञात होती है किंतु हम यहां पुरातात्विक प्रमाण भी देखेंगे, जिससे यह पूर्ण रुपेण सिद्ध हो जायेगा कि भारत में अंगूठियों का प्रयोग मौर्यकाल से भी पूर्व सिंधु सरस्वती सभ्यता (३००० ईसापूर्व से २००० ईसापूर्व) के दौरान भी होता था।  यह अंगुठियां सोने, चांदी, ताम्बे की बनती थी। सिंधु सरस्वती सभ्यता के विभिन्न स्थलों से हमें तीनों धातुओं की बनी अंगुठियां प्राप्त हुई है। (1) सोने से बनी अंगुठियां -  हरियाणा के भिवानी खेरा के सिंधु सभ्यता के स्थल से सोनें की अनेकों अंगुठियां प्राप्त हुई थी। जिनमें से कुछ अंगुठियों पर त्रिफुली जैसी कलाकृति है और इनक

प्राचीन भारत में ग्राम देव - देवी पूजन (साहित्यिक, अभिलेखीय और स्थापत्य के संदर्भ में)

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 भारत में प्राचीन काल से ही विभिन्न देवी देवताओं की पूजा का विधान रहा है। प्राकृतिक - दिव्य शक्तियों पर मनुष्य का विश्वास आदिम काल से ही देखा जाता है। हम लोग जिनके द्वारा लाभ प्राप्त करते हैं, उनमें देवत्व का अध्यारोपण कर लेते हैं। देवों के सम्बंध में यद्यपि अनेकों धारणाएं प्रचलित है। उनके अनेकों प्रकार भी हैं। किंतु हम ग्राम देव या देवी की बात करेगें।  भारत की संस्कृति का मूल हमें हमारे प्राचीन ग्राम में मिलता है। इन ग्रामों में आज भी ग्राम देव या ग्राम देवी के मंदिर व स्थान प्राप्त होते हैं। प्रत्येक ग्राम के अपने - अपने ग्राम देवी या देवता होते हैं। यह देव - देवी अनेकों बार हिंदू मान्यताओं के प्रचलित देव‌ या देवी ही होते हैं। जैसे - दुर्गा, शिव, गणेश, हनुमान, भैरव, राम, कृष्ण, सीता, यक्ष, गंधर्व, विधाधर आदि, अनेकों जगह लोक देव - देवी होते हैं, कुछ जगहों पर पूर्वज या यौद्धा होते हैं तो कुछ जगह कुछ प्राकृतिक शक्तियों को ही उस स्थान का ग्राम, गृह, कुल देव मान लिया जाता है।  ग्राम देवता या देवी के साहित्यिक संदर्भ हमें पुराणों से प्राप्त होते हैं। स्कन्द पुराण के अनुसार कलियुग का अति लक

वाराणसी से प्राप्त एक मुहर में वत्सराज उदयन का चित्रण!!!

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 भारत में लगभग 500 ईसापूर्व वत्स राज्य में महाराजा उदयन हुए थे। महाराजा उदयन इतने प्रसिद्ध थे कि उनके पश्चात भी विभिन्न नाटकों में उनका चरित्र स्मरण होता रहा है। न केवल साहित्य में अपितु कला में भी राजा उदयन पर आधारित नाटकों का अंकन मृण्य शिल्पों पर होता रहा है। इनमें कौशांबी के मृण्फलक प्रसिद्ध हैं, जिनमें हस्ति के ऊपर राजा उदयन, स्वप्नवासवदत्ता और विदुषक का अंकन है। इसी प्रकार एक मिट्टी की मुहर हमें वाराणसी से भी प्राप्त होती है -  - Varanasi Seals And Sealings, fig. 406  इस मुहर को स्पष्ट दर्शाने के लिए, इसमें कुछ रंगों का प्रयोग किया है -   उपरोक्त मुहर में एक व्यक्ति बैठकर एक बड़ी से वीणा को बजा रहा है तथा उससे आगे की तरफ एक हाथी को दर्शाया गया है। इस चित्रण की तुलना हम महाकवि भास के नाटक "प्रतिज्ञायौगन्धरायण" में वर्णित, उस घटना से कर सकते हैं, जिसमें राजा उदयन वीणा बजाकर एक हाथी (महासेन का कृत्रिम हाथी) को वश में करना चाह रहे हैं।  प्रतिज्ञायौगन्धरायण के अनुसार राजा उदयन को हाथियों का शोक होता है तथा वह अपनी वीणा के वादन के द्वारा हाथियों को वश में कर लेते थे। उनकी यह