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संगम साहित्य शिलप्पदिहारम् और देवी दुर्गा की प्रतिमा!!!

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 संगम साहित्य शिलप्पदिहारम् में देवी दुर्गा को कोर्रवै कहा गया है। जिनका वर्णन करते हुए कुछ विशेषताएं बतलाई गई है -  "पाय्कलैप पावै अणि कोण्डुनिन्र् इव् आय्तोडि नल्लाळ् तवमन्नै कोल्लो?" - शिलप्पदिहारम् , मदुरैक् काण्डम्, १२/८/६ अर्थ - तेज दौड़नेवाले हिरण पर आरूढ़ दुर्गा देवी का सा सज्जा लिए जो खड़ी है उस श्रेष्ठ कंकणधारिणी भाग्यवती का तप ही कैसा तप है?  "आनैत्तोल् पोर्त्तुप् पुलियिन् उरि उडुत्तुक् कानत्त अरुमै करुन्दलै मेल् निन्रायाल्वानोर् वणङ्ग मरैमेल् मरैयाहि ञानक् कोळुन्दाय् नडुक्कु  इन्रिये निर्पाय्" - शिलप्पदिहारम्, मदुरैक् काण्डम्, १२/८/७ अर्थ - व्योमवासी तुम्हारी वंदना करते हैं। तुम वेदों के ऊपर का वेद, ज्ञान का पल्लव बनी अचल रहने वाली हो। (फिर क्या माया है कि) तुम गज चर्म ओढ़े बाघंबर पहने वन्य महिष के सिर पर खड़ी रहीं।  यह विशेषता दक्षिण भारत की महिषासुरमर्दिनी (दुर्गा) देवी की प्रतिमाओं में देखी जा सकती है, इनमें से कुछ उदाहरण के तौर पर निम्न हैं -  - Silpa Sahasradala :Directory of unique, Rare and Uncommon Brahmanical Sculptures, Vol...

सिंधु सभ्यता के छिद्रत पात्र और पितृमेध अनुष्ठान!!!

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 सिंधु सभ्यता में अनेकों स्थलों जैसे हड़प्पा, कुंताशी आदि से अनेकों छिद्र युक्त पात्र प्राप्त हुए हैं। - Ancient cities of the Indus valley civilization, fig. 8.16, page no. 155 - Harappan Potteries, Pl. 78 इस प्रकार के छिद्रित पात्रों का उल्लेख हमें भारद्वाज पैतृमेधिक सूत्रम् में मिलता है -  "शतातृण्णं च कुम्भं त्रिविषूके" - भारद्वाजपैतृमेधिक सूत्रम् २.३.११ अर्थात त्रिपाद मंच पर एक सौ छिद्रों वाला कुम्भ स्थापित करें। " "शतातृण्णं च कुम्भं त्रिविषूके" - भारद्वाजपैतृमेधिक सूत्रम् २.३.११ अर्थात् सौ छिद्र वाले एक कुम्भ को त्रिपाद आसन पर रखना चाहिए।   "तस्मिन् दधि वाजिनमिश्रमानयति वैश्वानरे हविरिदं जुहोमि इति" - भारद्वाज पैतृमेधिक सूत्रम् २.३.१३ अर्थात उस घड़े में दहीं और वाजिना को मिश्रित करके भर दें, इसके साथ "वैश्वानरे हविरिदं " मंत्र का जाप करें।  यह मंत्र तैत्तिरीय आरण्यक में है -                 "वैश्वानरे हविरिदं जुहोमि साहस्रमुत्स शतधारमेतम्।  तस्मिन्नेष पितरं पितामहं प्रपितामहं बिभरत्पिन्वमाने,इति - तैत्तिरीय आरण...

कुषाण काल में कृष्ण, बलराम और एकनंशा की प्रतिमाएं!!!

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 कुषाण काल में विभिन्न प्रतिमाओं का सर्जन शुरु हो गया था। इसी में सबसे महत्वपूर्ण भगवान कृष्ण, बलराम और एकनंशा की प्रतिमाएं हैं। इन प्रतिमाओं की यह विशेषता है कि इनमें दो भाई और एक बहन को एक साथ दर्शाया जाता है। जबकि प्रायः प्रतिमाओं में पति पत्नियों को दर्शाया जाता है। भाई और बहन की यह संयुक्त प्रतिमाऐं , एक तरह से भाई - बहन के मध्य आपसी सत्कार, प्रेम का भी संदेश देती हैं। इन प्रतिमाओं में भगवान कृष्ण जो छोटे भाई है, भगवान बलराम जो कि बड़े भाई हैं तथा मध्य में इन दोनों की बहन एकनंशा को दर्शाया जाता है। इस प्रकार बलराम, एकनंशा और वासुदेव जी की प्रतिमा का लक्षण हमें वराहमिहिर की बृहत् संहिता में मिलता है -  एकनंशा कार्या देवी बलदेवकृष्णयोर्मध्ये कटि संस्थितवामकरा सरोजमितरेण चोद्वहती - बृहत्संहिता ५८.३७ अर्थात देवीएकनंशा को कमर पर हाथ रखते हुए, कृष्ण और बलराम जी के मध्य बनाया जाए। बृहत्संहिता में वर्णित प्रतिमाओं के लक्षण हमें विभिन्न स्थानों से मिली कुषाण कालीन प्रतिमाओं में स्पष्ट नजर आते हैं। यहां हम कुछ प्रतिमाओं को देखते हैं, जिनमें वासुदेव, बलराम और एकनंशा जी को दर्शाया गय...

पञ्चाङ्गुल / हस्तक का साहित्यिक, अभिलेखीय और कलात्मक विवरण!!!

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 भारत में प्राचीन काल से लेकर आज तक पंचाङ्गुल या हस्तक के अंकन की प्रथा रही है। पंचाङ्गुल या हस्तक का अर्थ हाथ के छापों के अंकन से है। ये छापे विभिन्न रंगों, सिंदूर, हल्दी आदि में हाथ डुबोकर लगाये जाते हैं।  ये छापे विभिन्न धार्मिक कार्यों, विवाहादि उत्सवों, धार्मिक और विभिन्न स्थलों पर लगाए जाते हैं। इन्हें शुभ प्रतीक के रुप में देखा जाता है। इन्हें लक्ष्मी जी, दुर्गा जी आदि देवियों या विभिन्न देवों और महापुरुषों के हस्त चिह्नों के रुप में भी देखा जाता है। जैसे चरण चिह्नों का अंकन होता है, उसी प्रकार हस्त चिह्नों का भी अंकन होता है।  हम यहाँ हस्तक या पंचाङ्गुल के कुछ साहित्यिक, अभिलेखीय और कलात्मक अंकन देखेगें।  मृच्छकटिकम् के अनुसार यज्ञ पशु के ऊपर रक्त चंदन से हस्तक के निशान लगाने का वर्णन है -  "सर्वगात्रेषु विन्यस्तैः रक्तचन्दन हस्तकैः। पिष्टचूर्णावकीर्णेश्च पुरुषो अहंपशूकृतः॥" - मृच्छकटिकम् १०.५  हस्तक के चिह्न के प्रमाण हमें भारत में मध्य पाषाण काल से मिलने लगते हैं। मिर्जापुर के शैलचित्रों में अनेकों हाथों के चिह्न प्राप्त होते हैं -  - Rock Ar...

सिरपुर (छत्तीसगढ़) से प्राप्त देवी पार्वती जी की एक रोचक प्रतिमा!!!

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 प्रतिमा निर्माण शिल्प कला का एक बेजोड़ उदाहरण है। अनेकों प्रतिमाओं की कलात्मकता मन को हर लेती हैं। कुछ प्रतिमाओं में जीवनोपयोगी शिक्षाऐं भी होती है। अनेकों प्रतिमाएं बहुत ही दुर्लभ और रोचकता लिए होती है। ऐसी ही अत्यंत दुर्लभ और रोचक प्रतिमा है, सिरपुर से प्राप्त देवी पार्वती की प्रतिमा।  आप इस प्रतिमा का चित्र देखिए -  - Sclupture Art Of Sirpur, Plate LIV, C , page no. 202  इस प्रतिमा में देवी पार्वती के साथ - साथ अनेकों वस्तुओं और प्राणियों का लघु चित्रण भी हुआ है। प्रतिमा के दायीं ओर शुभ सूचक प्रतीक है ंं जैसे - यज्ञकुंड, शिवलिंग,कच्छप। इसी प्रकार बायीं ओर भी शुभ सूचक चिन्ह हैं जैसे - श्री गणेश जी, परिचारिका, नीचें की ओर सिंह और एक शुभ शकुन सूचक छिपकली।  प्रतिमा के ऊपर की ओर दो चक्रों के मध्य मातृकाओं के शीर्षों को दिखलाया गया है। मुख्य देवी पार्वती जी को द्विभुज और कमलासन पर खड़ा दर्शाया गया है। अनेकों प्रतिकों सहित यह दुर्लभ प्रतिमा लगभग ६ - ७ शताब्दी की है।  प्रतिमा में शकुन शास्त्र का प्रयोग भी दृष्टिगोचर होता है। इसमें बायीं ओर छिपकली की आकृति ...

प्राचीन भारत में दंतकार (हाथी दांत के कारीगर)

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 भारत प्राचीनकाल से ही शिल्पियों का देश रहा है। यहां शिल्पियों द्वारा इतिहास में अनेकों अद्भूत निर्माण किये गये हैं। इनके अनेकों विभाग भी हैं जैसे - कांस्यकार, लौहकार, कुम्भकार, रथकार, चित्रकार, स्वर्णकार, रुपकार, रुप्यकार और दंतकार आदि।  यहां हम आज दंतकार के विषय में बात करेगें। दंतकार से तात्पर्य दंत से रुपादि निर्माण करने वाला कारीगर। यहां दंत से तात्पर्य हाथी के दांत से लिया जाता है। आज भी देश के अनेकों स्थानों पर हाथी दांत से बने आभूषणों का अत्यंत महत्व है। दंतकारों के अभिलेखीय साक्ष्य हमें सांचि के स्तूप के एक फलक से प्राप्त से होता है, जहां दंतकार द्वारा दान देने का उल्लेख है -  - Sanchi Through Inscription (@C - ASI Bhopal)  इस पर ब्राह्मी लिपि में - "वेदस के हि दंतकारे हि रुपकंम कतं" लिखा है। जो कि विदिशा के दंतकार का शुंग कालीन अभिलेखीय साक्ष्य है। दूसरा अभिलेखीय साक्ष्य ११ शताब्दी के बंगला लिपि के भटेरा ताम्रलेख पर मिलता है, जो कि राजा गोविंद केशवदेव के कार्यकाल में लिखवाया गया था। अभिलेख की 51 वीं पंक्ति में दंतकार का उल्लेख है - "दि गृह ३ सिहाडवग्रामे दन...

प्राचीन काल का समय मापक यंत्र - घटियंत्र (नाड़ी यंत्र)!!!

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 प्राचीन काल से ही लोग समय को ज्ञात करने के लिए विभिन्न पद्धतियों का प्रयोग करते आ रहे हैं। ये पद्धतियां मुख्यत: आकाशीय पिण्डों की गति और पृथ्वी से उसकी स्थिति पर आधारित रही है। किंतु अनेकों बार कृत्रिम साधनों का भी प्रयोग समय मापन में किया जाता था। समय मापने वाले ये कृत्रिम साधन घटी या घड़ी कहे जाते थे। प्राचीन काल में घड़ी सूर्य के प्रकाश और जल पर आधारित बनाई जाती थी।  दिन के समय में धूप घड़ी या सूर्य घड़ी के द्वारा समय का ज्ञान किया जाता था किंतु रात्रि के समय जल घड़ी के द्वारा समय ज्ञान किया जाता था। जल घड़ी को ही घटियंत्र या नाडीयंत्र भी कहा जाता है। इससे न केवल रात्रि अपितु दिन में भी समय ज्ञान हो जाता था। घडियंत्र को नाड़ी यंत्र अथवा नाडिक इसलिए भी कहा जाता है क्योंकि इसमें समय मापन का मात्रक "नाड़ी" शब्द से प्रयोग किया गया है। इस यंत्र का वर्णन वराहमिहिर ने 'पञ्चसिद्धान्तिका' में इस प्रकार किया है -  "द्युनिशिविनः सृततोयादिष्टच्छिद्रेण षष्टिभागो यः। सा नाड़ी स्वमतो वा श्वासाशीतिः शतं पुंसः॥३१॥ कुम्भार्धाकारं ताम्रं पात्रं कार्यं मूले छिद्रं स्वेच्छे तोये ...