प्राचीन काल का समय मापक यंत्र - घटियंत्र (नाड़ी यंत्र)!!!

 प्राचीन काल से ही लोग समय को ज्ञात करने के लिए विभिन्न पद्धतियों का प्रयोग करते आ रहे हैं। ये पद्धतियां मुख्यत: आकाशीय पिण्डों की गति और पृथ्वी से उसकी स्थिति पर आधारित रही है। किंतु अनेकों बार कृत्रिम साधनों का भी प्रयोग समय मापन में किया जाता था। समय मापने वाले ये कृत्रिम साधन घटी या घड़ी कहे जाते थे। प्राचीन काल में घड़ी सूर्य के प्रकाश और जल पर आधारित बनाई जाती थी। 

दिन के समय में धूप घड़ी या सूर्य घड़ी के द्वारा समय का ज्ञान किया जाता था किंतु रात्रि के समय जल घड़ी के द्वारा समय ज्ञान किया जाता था। जल घड़ी को ही घटियंत्र या नाडीयंत्र भी कहा जाता है। इससे न केवल रात्रि अपितु दिन में भी समय ज्ञान हो जाता था। घडियंत्र को नाड़ी यंत्र अथवा नाडिक इसलिए भी कहा जाता है क्योंकि इसमें समय मापन का मात्रक "नाड़ी" शब्द से प्रयोग किया गया है। इस यंत्र का वर्णन वराहमिहिर ने 'पञ्चसिद्धान्तिका' में इस प्रकार किया है - 

"द्युनिशिविनः सृततोयादिष्टच्छिद्रेण षष्टिभागो यः।
सा नाड़ी स्वमतो वा श्वासाशीतिः शतं पुंसः॥३१॥
कुम्भार्धाकारं ताम्रं पात्रं कार्यं मूले छिद्रं स्वेच्छे
तोये कुण्डे न्यस्तं तस्मिन् पूर्णे नाडी स्यात्।
मूलाल्पत्वाद्वेधो वा षष्टिर्योज्या चाह्ना रात्र्या वर्णाः
षष्टिर्वक्राः श्लोको यत्तत्षष्ट्या वा सा स्यात्॥३२॥"

अर्थात् (पात्र में) इष्ट छिद्र में से एक अहोरात्र काल में निकलने वाले जल का साठवाँ भाग (निकलने) तुल्य समय एक नाडी होता है, यह स्वतः प्रतिपादित है अथवा मनुष्य के १८० श्वास तुल्य समय (एक नाड़ी) होता है।
अर्धकुम्भ के आकार का ताम्बे का एक पात्र बनाकर उसके मूल में एक इच्छित आकार का छिद्र करके उसको जल कुण्ड में स्थापित कर देवें। जितने समय में पात्र पूर्ण भर जाये वह समय एक नाडी होता है। पात्र के मूल में छिद्र वेध करके इतना सूक्ष्म करें कि वह एक अहोरात्र में साठ बार पूरा भर जाये अथवा जितने समय में साठ अक्षर लम्ब साठ श्लोक पढें जावे उतना समय होता है। 
- पञ्चसिद्धान्तिका, चर्तुदशोऽध्यायः, श्लोक ३१ - ३२

यहां घटियंत्र अथवा नाडियंत्र निर्माण की विधि भी दी गई है। इस यंत्र के प्रयोग के हमें अभिलेखीय साक्ष्य भी प्राप्त होते हैं, जो कि इस यंत्र के प्रयोग को पुरातात्विक रुप से सिद्ध करता है।

उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के हरहा नामक गांव से मौखरी वंश के शासक ईशानवर्मा का एक शिलालेख प्राप्त हुआ था। जिसकी स्याही इस प्रकार है - 

- Epigraphia Indica, Vol. XIV (1917 - 18), page no. 118ff

इस अभिलेख की १४ वीं पंक्ति में नाडिक शब्द से घटियंत्र का उल्लेख किया गया है।

"व्यक्ति नाडिकयैव याति जयिनो यामास्त्रियामास्विव॥ प्रविशती कलिमारुतघट्टिता" 
जल - घड़ी से जैसे रात्रि के समय ज्ञान होता है उसी प्रकार जल - घड़ी के समय का ज्ञान होता था। 
- भारतीय पुरालेखों का अध्ययन, पृष्ठ ३३८ , ३४१ 

यहां ५५४ ई. के अभिलेख पर नाडिक अर्थात् घटियंत्र का उल्लेख देखा जा सकता है। अभिलेख की लिपि उत्तरोत्तर गुप्त ब्राह्मी है। इसमें नाडिक या घटियंत्र के संदर्भ वाली पंक्ति का मूल और देवनागरी लिप्यंतरण भी देखें - 


- Epigraphia Indica, Vol. XIV (1917 - 18), page no. 118ff

लिप्यंतरण - 




घटियंत्र अथवा नाड़ीयंत्र का एक आधुनिक चित्र भी देखें - 

- Google Image से साभार 

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एस्ट्रो फीजिक्स बंगलौर से एन. कामेश्वर राव ने अपने एक शोध पत्र में मोहनजोदड़ो से प्राप्त छिद्र युक्त मृतिका पात्रों की पहचान घडियंत्र या नाडिक के रूप में की है। 

- Bull. Astr. Soc. India (2005) , Vol . 33 , Aspects of prehistoric astronomy in India, page no. 505, fig.3 

मोहनजोदड़ो से प्राप्त इन पात्रों के नीचले तल पर एक छिद्र है, जो कि इसको घटियंत्र या जलघडी (नाडिक) के रुप में अनुमान करवाता है। यदि कामेश्वर राव जी के शोध को सभी विद्वतजनों में स्वीकार कर लिया जावे तो भारत में घटियंत्रों के प्रयोग की प्राचीनता पुरातात्विक रुप से सिंधु सभ्यता (2500 - 2000 ईसापूर्व) के दौरान भी सिद्ध होती है।


इन सब प्रमाणों से स्पष्ट है कि - 
भारत में समय मापन के लिए घटियंत्र का प्रयोग प्राचीनकाल से ही होता था, इसकी पुष्टि न केवल साहित्यिक प्रमाणों से होती है, अपितु प्राचीन अभिलेखीय साक्ष्यों से भी होती है।
यह अभिलेखीय साक्ष्य प्राचीन भारत में ज्योतिष में वेध (कलायंत्रों) के प्रयोग को भी पुरातात्विक रुप से प्रमाणित करता है।

संदर्भ स्रोत - 
1) वराहमिहिरप्रणीता पञ्चसिद्धान्तिका 'दामोदर' भाषाभाष्यसंवलिता - अनु. डॉ. सत्यदेव शर्मा 

2) Epigraphia Indica, Vol. XIV (1917 - 18)

3) भारतीय पुरालेखों का अध्ययन - डॉ. शिवस्वरूप सहाय 

4) Bull. Astr. Soc. India (2005) , Vol . 33 





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