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Showing posts from May, 2023

अंगूर - प्राचीन भारतीय चिकित्सा शास्त्र और पुरातत्व में!!!

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 कुछ दिनों पहले "द प्रिंट मीडिया" में एक खाद्य इतिहासकार सलमा युसुफ हुसैन ने लिखा था कि भारत में अंगूर भारत में मुगलों की देन हैं।  https://theprint.in/pageturner/excerpt/no-one-could-see-shah-jahan-eat-but-a-portugese-priest-once-snuck-in-and-heres-what-he-saw/244067/ उनके इस दावें की हम प्राचीन भारतीय साहित्य, कला और जैव - पादप पुरातत्व के आधार पर समीक्षा करेगें। भारत में चिकित्सा शास्त्र में अंगूरों का अत्यंत महत्व रहा है। आसव, अरिष्टादि औषधियां बनाने में अंगूर का उपयोग होता था। चरक संहिता के सूत्रस्थान में अंगूर को फलों में उत्तम कहा गया है। "मृद्वीका फलानां" - चरक संहिता, सूत्र स्थान २५.६७ अर्थात् फलों में अंगूर (काले अंगूर ) श्रेष्ठ हैं। इसी प्रकार आगे लिखा है कि अंगूर तृष्णा, दाह, ज्वर को शांत करता है। रक्तपित्त, खांसी, स्वरभेद, मुख का सुखना, मदात्य, वात, मुख का तिक्त होना आदि को शीघ्र नष्ट करता है।यह बृहण, मधुर, स्निग्ध तथा शीतल होता है। "तृष्णादाहज्वरश्वासरक्तपित्तक्षतक्षयान्। वातपित्तमुदावर्त्त स्वरभेदं मदात्ययम्॥ तिक्तास्यतामारस्यशोषं कासं चाशु व्यपो...

प्राचीन भारत में हिंदु देवों पर आधारित राजाओं के नाम!!!

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 भारत में प्राचीनकाल से ही देवों और ऋषियों पर आधारित नामकरण की प्रथा रही है। आज भी अपने - अपने इष्ट जैसे राम और कृष्ण पर आधारित नाम - रामदास, रामशर्मा, माधव, मोहन आदि रखे जाते हैं। प्राचीनकाल में भारत के विभिन्न भागों के राजाओं के नाम भी हिंदु या वैदिक देवों पर आधारित थे। प्रायः पांचाल मित्र राजाओं के नामों से तो सभी परिचित हैं हीं, जिनके नामों के साथ - साथ वैदिक देवों के अंकन भी हमें सिक्कों पर मिलते हैं, जैसे - अग्नि मित्र, इंद्र मित्र, भानु मित्र, विष्णु मित्र आदि। किंतु इस लेख में हम मथूरा, कौशांबी के कुछ राजाओं के नाम बतायेगें, जो कि हिंदु देवों पर आधारित है। इन राजाओं के प्राचीन सिक्के तथा उन पर ब्राह्मी लिपि में लिखे नामों को आज हम देखेगें। ये सिक्के प्रायः २०० ईसापूर्व से १ ईस्वी तक के हैं। कौशांबी के राजा वरुण मित्र -  - Virasat Auctions lot 31  यह कौशांबी के शासक वरुण मित्र का सिक्का है, इस पर ब्राह्मी में वरुण मि (त) (स) देखा जा सकता है। यह नाम वैदिक देव वरुण पर आधारित है। वरुण देव पर अनेकों मंत्र वेदों में प्राप्त होते हैं। जैसे -  "नमस्ते रजन्वरुणास्तु" ...

मथूरा में ब्राह्मणों द्वारा इष्टापूर्त्त कर्म का सम्पादन!!! ( प्राचीन अभिलेखों के आलोक में)

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 वैदिक संस्कृति में इष्टापूर्त्त कर्म की बड़ी महिमा गाई गई है। जहां इष्ट कर्म आत्मोन्नति करता है, वहीं पूर्त्त कर्म से सामाजिक उत्थान भी होता है। इसलिए वैदिक धर्म में न केवल यज्ञादि, ध्यान, साधना, देव पूजा का विधान है अपितु लोक कल्याणकारी कार्य जैसे कुआं खुदवाना, पुष्करिणी (तडाग) बनवाना, पेड़ और बगीचा लगवाना, धर्मशाला बनवाना आदि का भी विधान है।  इष्टापूर्त कर्म के संदर्भ जगह - जगह हिंदू ग्रंथों में है। हिंदुओं के प्रमुख ग्रंथ वेदों में भी इस शब्द का जगह - जगह प्रयोग किया है। यजुर्वेद १८.६० - ६१ में इष्टापूर्त्त कर्मों के शुभफल तथा देवमार्ग की प्राप्ति का उल्लेख है। ए॒तं जा॑नाथ पर॒मे व्यो॑म॒न् देवाः॑ सधस्था वि॒द रू॒पम॑स्य। यदा॑गच्छा॑त् प॒थिभि॑र्देव॒यानै॑रिष्टापू॒र्त्ते कृ॑णवाथा॒विर॑स्मै ॥६० ॥ उद्बु॑ध्यस्वाग्ने॒ प्रति॑ जागृहि॒ त्वमि॑ष्टापू॒र्ते सꣳसृजेथाम॒यं च॑। अ॒स्मिन्त्स॒धस्थे॒ऽअध्युत्त॑रस्मि॒न् विश्वे॑ देवा॒ यज॑मानश्च सीदत ॥६१ ॥ यजु. १८/ ६० - ६१ अत्रि स्मृति में इष्टापूर्त्त कर्मों को स्वर्ग और मोक्ष दायक कहा गया है। तथा इसे ब्राह्मणों के लिए आवश्यक कर्म भी कहा है। इष्टापूर्त...

प्राचीन भारत में स्नान के लिए प्रयुक्त इष्टिका का स्वरूप !!!

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 नमस्ते पाठकों! साहित्य और संस्कृति के तीसरे लेख में आपका स्वागत है। हमने पहले लेख में स्नानगृह के बारे में बताया था। वहां हमने सुश्रुत संहिता का प्रमाण भी उद्धृत किया था। ऐसे में उस स्थान पर हमें शरीर रगड़ने और मेल छुडाने के लिए "इष्टिका" का प्रयोग दिखा। ऐसे में विचार बनता है कि क्या यह इष्टिका सामान्य ईंटों के टुकड़े थे अथवा इनका विशेष स्वरूप था? पुरातात्विक अनुसंधानों को देखने से ज्ञात हुआ कि शरीर का मेल छुडाने के लिए, विशेष इष्टिकाओं का निर्माण किया जाता था। सामान्य ईंटों के समान ही, यह भी पक्की मिट्टी की बनती थी। भारत के प्रत्येक काल सिंधु सभ्यता, ताम्रपाषाणी सभ्यता, लौह सभ्यता, महाजनपद काल से गुप्तकाल तक ऐसी मिट्टी की पकी मैल छुडाने वाली इष्टिकाऐं प्राप्त हुई हैं। आज भी खुरदुरे पत्थर, झामें का प्रयोग होता है।  मैल छुडाने के लिए इष्टिका प्रयोग पर हम पहले साहित्यिक प्रमाण देखते हैं, फिर पुरातात्विक प्रमाणों से उनका स्वरुप भी जानेगें -  "उद्धर्षणं त्विष्टिकया कंडूकोठविनाशनम्।" - सुश्रुत संहिता, चिकित्सितस्थान अ. २४, श्लोक ५४  अर्थात् इष्टिका से त्वचा को रगड़ना को...

जब साहित्यिक जनश्रुति को शिल्पी ने प्रस्तर पर उकेरा!!!

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मूल लेखक - डॉ. सत्यप्रकाश श्रीवास्तव जी।  नमस्ते पाठकों! ब्लाग के दूसरे लेख में आपका स्वागत है। आज भी एक नयी जानकारी के साथ हम आप सबके समक्ष प्रस्तुत हैं। आज के लेख में हम एक प्रसिद्ध जनश्रुति का शिल्प में भी प्रयोग देखेगें।  एक प्रसिद्ध ही जनश्रुति काव्यों में मिलती है कि चातक पक्षी स्वाति नक्षत्र में वर्षा की बूंदों को पृथ्वी पर गिरने से पूर्व ही बड़ी कुशलता से अपनी चोंच में ग्रहण कर लेता है, अन्य समय एवं भूमि पर गिरे हुए जल को वह ग्रहण नहीं करता। अनेकों संस्कृत कवियों ने इसका उल्लेख किया है। कालिदास जी ने भी मेघदूतम् में इसका उल्लेख किया है -  "अम्भोबिन्दु ग्रहण चतुरश्चातकान् वीक्षमाणाः। श्रेणीभूताः परिगणनया निर्दिशन्तो बलाकाः॥ त्वासामाद्य स्तनितसमये मानयिष्यन्ति सिद्धाः। सोत्कम्पानि प्रियसहचरी संभ्रमालिङ्गितानि॥" - पूर्वमेघ २२ - प्राच्य विद्या के विविध आयाम, पृष्ठ ५९  उपरोक्त जनश्रुति का भारतीय कला में भी अंकन प्राप्त होता है। मथुरा संग्रहालय में कुषाण कालीन एक ऐसी प्रस्तर प्रतिमा सुरक्षित है, जिसमें नायिका अपने बालों को निचोड़ रही है और चातक उसके बालों को मेघ की...

प्राचीन भारतीय स्नानघरों का स्वरूप!!!

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 नमस्ते पाठकों!  स्वागत है हमारे ब्लाग के पहले लेख में, आज हम प्राचीन स्नानघरों के स्वरूप पर विचार करेगें। प्राचीन स्नानघरों के साहित्यिक एवं कलात्मक दर्शन में एक अद्भुत समानता और कुछ आश्चर्यजनक जानकारियां आज के इस लेख में हम प्राप्त करेंगें। स्नान भारतीय समाज के नित्यकर्म का एक महत्वपूर्ण अंग है। यह न केवल स्वास्थ्य से जुड़ा है अपितु अध्यात्मिक उन्नति से भी जुड़ा हुआ एक महत्वपूर्ण अंग है। योगदर्शन के आठ अङ्गों में द्वितीय स्थान पर "नियम" आता है। नियमों के अंतर्गत "शौच" आता है, जैसा कि योग दर्शन से स्पष्ट है -  " शौचसंतोषतपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः" - योग दर्शन २/३२ अर्थात् शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान यह नियम है।  इसी सूत्र के व्यास भाष्य में शौच के दो प्रकार बताए हैं - बाह्य और आंतरिक, इसमें बाह्य शौच के बारे में लिखा है -  "तत्र शौचं मृज्जलादिजनितं मेध्याभ्यवहरणादि च बाह्यम्" - योग दर्शन पर व्यास भाष्य २/३२  अर्थात् उनमें बाह्य शौच मिट्टी, जलादि के संयोग और पवित्र खाद्य पदार्थों के खाने और अमेध्य पदार्थों के त्यागने से होत...