मथूरा में ब्राह्मणों द्वारा इष्टापूर्त्त कर्म का सम्पादन!!! ( प्राचीन अभिलेखों के आलोक में)

 वैदिक संस्कृति में इष्टापूर्त्त कर्म की बड़ी महिमा गाई गई है। जहां इष्ट कर्म आत्मोन्नति करता है, वहीं पूर्त्त कर्म से सामाजिक उत्थान भी होता है। इसलिए वैदिक धर्म में न केवल यज्ञादि, ध्यान, साधना, देव पूजा का विधान है अपितु लोक कल्याणकारी कार्य जैसे कुआं खुदवाना, पुष्करिणी (तडाग) बनवाना, पेड़ और बगीचा लगवाना, धर्मशाला बनवाना आदि का भी विधान है। 

इष्टापूर्त कर्म के संदर्भ जगह - जगह हिंदू ग्रंथों में है। हिंदुओं के प्रमुख ग्रंथ वेदों में भी इस शब्द का जगह - जगह प्रयोग किया है। यजुर्वेद १८.६० - ६१ में इष्टापूर्त्त कर्मों के शुभफल तथा देवमार्ग की प्राप्ति का उल्लेख है।

ए॒तं जा॑नाथ पर॒मे व्यो॑म॒न् देवाः॑ सधस्था वि॒द रू॒पम॑स्य। यदा॑गच्छा॑त् प॒थिभि॑र्देव॒यानै॑रिष्टापू॒र्त्ते कृ॑णवाथा॒विर॑स्मै ॥६० ॥

उद्बु॑ध्यस्वाग्ने॒ प्रति॑ जागृहि॒ त्वमि॑ष्टापू॒र्ते सꣳसृजेथाम॒यं च॑। अ॒स्मिन्त्स॒धस्थे॒ऽअध्युत्त॑रस्मि॒न् विश्वे॑ देवा॒ यज॑मानश्च सीदत ॥६१ ॥ यजु. १८/ ६० - ६१

अत्रि स्मृति में इष्टापूर्त्त कर्मों को स्वर्ग और मोक्ष दायक कहा गया है। तथा इसे ब्राह्मणों के लिए आवश्यक कर्म भी कहा है।

इष्टापूर्त्त च कर्तव्यं ब्राह्मणेनैव यत्नतः।
इष्टेन लभते स्वर्ग पूर्त्ते मोक्षोविधीयते॥- अत्रि. स्मृति. १.४३

कौनसे कर्म इष्ट कहे जायेगें और कौनसे कर्म पूर्त्त कहे जायेगें, ये बताते हुए, अत्रि स्मृति कार ने अग्निहोत्र, तप, सत्य, अतिथि सत्कार, विश्वदेवादि यज्ञ को इष्ट कहा है।

अग्निहोत्रं तपः सत्यं वेदानां चैव पालनम्।
आतिथ्यं वैश्वदेवश्च इष्टमित्यभिधीयते॥ - अत्रि. स्मृति १.४४


वापी, तालाब, कुआं आदि जलस्रोत, देवतायतन, अन्न बांटना, आराम सभा का निर्माण आदि लोक कल्याणकारी कार्यों को पूर्त्त कर्म कहा गया है।

वापी कूपतडागादि देवतायनानि च।
अन्नप्रदानमारामः पूर्त्तसित्यभिधीयते॥ - अत्रि स्मृति १.४५

लिखित स्मृति में वापी कूपादि निर्माण के साथ - साथ इनके जीर्णोद्धार को भी पूर्त्त कर्म कहा है।

वापी कूपतडागानि देवतायनानि च।
पतितान्युद्धरेघस्तु स पूर्तफलमश्नुते॥ - लिखित स्मृति १.४ 

आपस्तम्ब धर्मसूत्र २/३/३ पर हरिदत्तमिश्र ने भी अग्निहोत्रादि को इष्ट और स्मार्त कर्म, कूप खनन आदि को पूर्त्त कर्म कहा है।

इष्टमग्निहोत्रादि। पूर्त्त स्मार्ते कर्म कूपखातादि॥ - आप. धर्म. २.३.३ पर हरिदत्तमिश्र टीका
कुछ पांडुलिपियों में "तडागादि" व तडागखननादि पाठ भी प्राप्त होता है।

मनुस्मृति ४.२२६ पर सर्वज्ञ नारायण ने टीका करते हुए, इष्ट कर्म को यागादि तथा पुष्करिणी आदि निर्माण को पूर्त कर्म कहा है।

सर्वज्ञ नारायण - इष्टं याग। पूर्ते पुष्करिण्यादि॥ - मनुस्मृति ४.२२६ सर्वज्ञ नारायण टीका

इसी श्लोक पर कुल्लुक भट्ट ने यज्ञादि को इष्ट कर्म और पुष्करिणी, कूप, आराम आदि के निर्माण को पूर्त्त कर्म कहा है।

कुल्लूक: - इष्टमन्तर्वेदिय यज्ञादि कर्म, पूर्तेततोन्यत्पुष्करिणीकूपप्रपारामादि। - मनुस्मृति ४.२२६ कुल्लूक भट टीका

इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि इष्ट कर्म से तात्पर्य यगादि कर्म हैं तथा पूर्त्त कर्म से तात्पर्य पुष्करिणी, कूप, नहर आदि जलाश्य, वाटिका, धर्मशाला आदि आराम सभा का निर्माण करवाना, इत्यादि लोक कल्याणकारी कार्य हैं।
इन दोनों इष्टापूर्त कर्मों को आवश्यक और पुण्यफल वाला कहा गया है। प्राचीनकाल से ही भारतीय इन दोनों कर्मों का सम्पादन करते आ रहे हैं। इसके ऐतिहासिक पुरातात्विक प्रमाण हमें मथूरा से प्राप्त प्राचीन अभिलेखों में भी मिलते हैं।
इन इष्टापूर्त कर्मों को ब्राह्मणों द्वारा किया गया था और इनको चिरकालीन स्मृति करने के लिए शिलापट्टों पर भी इनका वर्णन करवाया गया था।
आइये हम कुछ प्राचीन अभिलेख देखते हैं, जिनपर इष्टापूर्त कर्मों के संदर्भ प्राप्त होते हैं - 
मथूरा के ईशापूर से प्राप्त यूप स्तम्भ पर इष्ट कर्म का उल्लेख - 
- Archaeological Survey of India, Annual Report 1910 - 11, Page no. 40ff, PL. No. X


यह मथूरा से प्राप्त, कुषाण शासक हुविष्क कालीन यूप स्तम्भ है। इस पर द्वादशरात्र यज्ञ का उल्लेख है, जिसे अभिलेख में भी इष्ट कर्म कहा है। इस अभिलेख के अनुसार "हुविष्क के शासन काल में भारद्वाज गोत्र के ब्राह्मण रुद्रिल के पुत्र द्रोणल ब्राह्मण ने जो कि सामवेद का अध्येता है, ने द्वादशरात्र यज्ञ का सम्पादन करके इस यूप को प्रतिष्ठापित किया था, भगवान अग्नि उनका प्रिय करें।" यहां यह अभिलेख एक ब्राह्मण द्वारा यज्ञ सम्पादन का उल्लेख करते हुए, हमें इष्ट कर्म का प्रमाण प्रदान करता है। इसका देवनागरी लिप्यन्तरण निम्न प्रकार है - 


मिर्जापुर मथूरा से प्राप्त शिलापट्ट पर पूर्त्त कर्म का उल्लेख - 


- History of Early Stone Sclupture At Mathura : CA. 150 BCE - 100 CE, fig. 286

जैसा कि ऊपर हमने जलाश्यादि, आरामादि निर्माण सम्बंधित लोक कल्याणकारी कर्मों को सप्रमाण पूर्त्त कर्म बतलाया था। मथूरा के मिर्जापुर से प्राप्त एक शिलापट पर उद्धृत लेख पर हमें पुष्करिणी, कुआं, आराम सभा निर्माण सम्बंधित उल्लेख की प्राप्ति होती है। जिसे पूर्त्त कर्म भी कहा जाता है।
अभिलेख के पाठ के अनुसार "शेग्रेव गौत्र की ब्राह्मण कौशिकी पक्षका, जो कि वसु की माता तथा मूलवसु की पत्नि हैं, ने पुष्करिणी, युगल पुष्करिणी, पूर्व की पुष्करिणी, आराम सभा, कुआ, स्तम्भ तथा लक्ष्मी प्रतिमा और शिलापट्ट का निर्माण करवाया था।" 
इसका लिप्यंतरण निम्न प्रकार है - 

जमालपुर टीला, मथूरा से प्राप्त शिलापट्ट पर पूर्त्त कर्म का उल्लेख - 

-  Mathura Inscriptions, Page no. 286, fig. $64

यह अभिलेख भी पुष्करिणी, कुआं, आराम और स्तम्भ निर्माण सम्बंधित पूर्त्त कर्म का उल्लेख करता है। मिर्जापुर मथूरा के शिलापट के समान ही सम्भवतः यह भी शेग्रेव गौत्र के ब्राह्मणों द्वारा ही निर्मित शिलापट्ट है किंतु इसमें व्यक्तियों के नाम नष्ट हो गये हैं। यह शोडास कालीन है। उपरोक्त अभिलेख में जहां हमें पूर्वी पुष्करिणी का उल्लेख मिलता है‌, वहीं इस अभिलेख में हमें पश्चिमी पुष्करिणी का उल्लेख प्राप्त होता है। अभिलेख के अनुसार - "महाक्षत्रप शोडास के शासनकाल में शेग्रेव गौत्र के ब्राह्मण ने पुष्करिणी, युगल पुष्करिणी, पश्चिमी पुष्करिणी, कुआं, आराम, स्तम्भ शिलापट्ट का निर्माण करवाया"   इस अभिलेख का देवनागरी लिप्यन्तरण निम्न प्रकार है - 

मथूरा के यवनराज अभिलेख पर पूर्त्त कर्म का उल्लेख - 


History of Early Stone Sclupture At Mathura : CA. 150 BCE - 100 CE, fig. 118

यह अभिलेख ५० ईसापूर्व के आसपास का है। इसमें कुआं, पुष्करिणी निर्माण सम्बंधित पूर्त्त कर्म का उल्लेख हुआ है। इसमें इस पूर्त्त कर्म से पुण्य वर्धन की कामना भी की गई है। अभिलेख के अनुसार " यवनराज के शासन काल में होगाणी जो कि मैत्रेय गौत्र के ब्राह्मण घोषदत्त के पुत्र व्यापारी वीराबल की माता है, ने पुत्र वीराबल, 
पुत्रवधु भागुरी तथा पौत्र शुरदत्त, ऋषभदेव और वीरदत्त सहित पुष्करिणी और कुआं का निर्माण करवाया है, इन सबके पुण्यों में इस कर्म से वृद्धि होवें" इसका देवनागरी लिप्यन्तरण निम्न प्रकार है - 

इस प्रकार हमें मथूरा के प्राचीन अभिलेखों से इष्टापूर्त्त कर्म के साक्ष्य प्राप्त होते हैं, जिन्हें इस क्षेत्र के ब्राह्मणों ने करवाया था। इससे तत्कालीन समाज की लोक कल्याणकारी भावना का भी पता चलता है।

संदर्भित स्रोत - 

१) अष्टादश स्मृति (हिंदी टीका सहित) - अनु. प. सुंदरलाल जी त्रिपाठी

२) आपस्तम्ब धर्मसूत्रम् : श्रीमद्धरदत्तमिश्र विरचिता उज्जवलाख्यया वृत्त्या संवलितम् - सम्पा. श्री चिन्नास्वामी शास्त्री

३) श्री मानवधर्मशास्त्रम् : मेधातिथिसर्वज्ञ नारायण कुल्लूकराघवानन्दनन्दन रामचन्द्र प्रणीतव्याख्याभिः परिष्कृतं परिशिष्टोपेतंच - सम्पा. विश्वनाथ नारायण मण्डलिक 

४) यजुर्वेद संहिता - https://xn--j2b3a4c.com/yajurveda/18/61

५) Archaeological Survey of India, Annual Report 1910 - 11

६)History of Early Stone Sclupture At Mathura : CA. 150 BCE - 100 CE - Sonya Rhie Quintanilla

७) Mathura Inscriptions - Ed. K Laus L. Janert








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