प्राचीन भारतीय स्नानघरों का स्वरूप!!!

 नमस्ते पाठकों! 

स्वागत है हमारे ब्लाग के पहले लेख में, आज हम प्राचीन स्नानघरों के स्वरूप पर विचार करेगें। प्राचीन स्नानघरों के साहित्यिक एवं कलात्मक दर्शन में एक अद्भुत समानता और कुछ आश्चर्यजनक जानकारियां आज के इस लेख में हम प्राप्त करेंगें।

स्नान भारतीय समाज के नित्यकर्म का एक महत्वपूर्ण अंग है। यह न केवल स्वास्थ्य से जुड़ा है अपितु अध्यात्मिक उन्नति से भी जुड़ा हुआ एक महत्वपूर्ण अंग है। योगदर्शन के आठ अङ्गों में द्वितीय स्थान पर "नियम" आता है। नियमों के अंतर्गत "शौच" आता है, जैसा कि योग दर्शन से स्पष्ट है - 

" शौचसंतोषतपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः" - योग दर्शन २/३२

अर्थात् शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान यह नियम है। 

इसी सूत्र के व्यास भाष्य में शौच के दो प्रकार बताए हैं - बाह्य और आंतरिक, इसमें बाह्य शौच के बारे में लिखा है - 

"तत्र शौचं मृज्जलादिजनितं मेध्याभ्यवहरणादि च बाह्यम्" - योग दर्शन पर व्यास भाष्य २/३२ 

अर्थात् उनमें बाह्य शौच मिट्टी, जलादि के संयोग और पवित्र खाद्य पदार्थों के खाने और अमेध्य पदार्थों के त्यागने से होती है।

यहां मिट्टी और जल से स्नान की ओर संकेत है, जिससे बाह्य शुद्धि मानी गयी है। आयुर्वेद में भी स्नान के महत्व को दर्शाते हुए लिखा है - "निद्रादाहश्रमहरं स्वेदकंडूवृषापहम्॥ हृद्यं मलहरं श्रेष्ठं सर्वेन्द्रियविशोधनम्॥" 

"तंद्रापापोशमनं तुष्टिदं पुंस्त्ववर्द्धनम्॥रक्तप्रसादनं चापि स्नानमग्नेश्च दीपनम्॥" - सुश्रुत संहिता, चिकित्सतस्थान, अ. २४, श्लोक ५५, ५६ 

अर्थात् स्नान करना निद्रा, दाह, श्रम को नाश करता है तथा पसीना, खाज और तृषा को नष्ट करता है, हृदय को हित है, मल को दूर करने वाला श्रेष्ठ है, समस्त इन्द्रियों का शोधन करता है। तंद्रा और पाप का नाशक, तुष्टि का देनेवाला पुरुषार्थ बढानेवाला, रुधिर को स्वच्छ करनेवाला तथा जठराग्निक दीपन करने वाला है। 

स्नान के अनेकों प्रकार प्राचीन काल से ही प्रचलित रहे हैं जैसे - सरोवर या जलाश्य में तैर कर स्नान, स्नानाघरों में स्नान, बरसात के जल से स्नान, छत या झरने से धार रुप गिरते जल से स्नान आदि। यहां एक सुंदर चित्र भी प्रस्तुत करते हैं, जिसमें एक युवती पहाड़ों या छत से आ रहे झरने रुपी जल से स्नान कर रही है - 

- Gods, Men and and Women : Gender and Sexuality in Early Indian Art, fig. 6.19, Page no. 313 

यह कुषाण कालीन मथुरा से प्राप्त फलक है, इस फलक में एक स्त्री का झरने के नीचे स्नान करने का अंकन है।

इसी प्रकार अब हम अपने विषयानुसार प्राचीन स्नानघरों का स्वरुप देखते हैं। साहित्यिक दृष्टि से भारतीय संस्कृति के इन्साइक्लोपीडिया कहे जाने वाले साहित्य "मानसोल्लासः" में स्नानघर के स्वरुप का एक सुंदर वर्णन किया गया है - 

"अथ स्नानोपभोगाऽयं कथ्यते सुमनोहरः।
स्वगृहाभ्यन्तरेशानकोणे स्नानगृहं न्यसेत्॥
काञ्चनस्तम्भरुचिरं स्फुटत्स्फटिकवेदिकम्।
काचकुट्टिमशोभाढ्यं दरदाक्लृप्तभित्तिकम्॥
चीनपट्टवितानेन चित्रेण परिशोभितम्।
वरुणस्य वितानेन स्पर्धमानं स्वतेजसा॥
तत्र स्थित्वा महीपालः स्नानभोगमथाचरेत्।" - मानसोल्लासः , द्वितीय भाग, तृतीय प्रकरण, श्लोक ९२७ - ९३०, पृष्ठ १४४ - ४५
अर्थात् अब आगे स्नान - उपभोग को सुंदर ढंग से कहा जाता है। अपने गृह के अन्तर्गत ईशानकोण में स्नानगृह बनवाना चाहिए।
उसमें सुवर्ण के सुंदरतम स्तम्भ हों। उज्जवल स्फटिक से जटित वेदिका हो। फर्श पर शोभा बिखेरने वाले काचकुट्टिम की जडाई हो और बहुमूल्य पाषाणों से जड़ी हुई दीवारें हों। उसमें चीनपट्ट से बने वितानों से अनेक प्रकार की शोभा की गई हो। वरुण के लिए जो वितान बनाया गया हो, उसकी तेजस्विता प्रतिस्पर्धा करती प्रतीति दें।ऐसे स्थान पर स्थित होकर महीपाल को स्नान करना चाहिए।

आगे स्नान के लिए जल भरे कलशों का उल्लेख भी प्राप्त होता है -

"नानातीर्थाहृतैस्तोयैर्विमलैर्महारिभिः॥
सुगन्धवासनायुक्तैः सुखोष्णैः स्पर्शसौख्यदैः।
एभिरापूरितैः पात्रैः लोहकूर्परगादिभिः॥
 कलशैः काञ्चनोत्पन्नैः कान्तैः कान्ताकरोत्थितैः।
शातकुम्भमयैः कुम्भैः राजद्भिरपि राजतैः॥" - मानसोल्लास, द्वितीय भागः, तृतीय प्रकरणः, श्लोक ९४३ - ९४५, पृष्ठ १४६ - ४७ 
अर्थात् स्नानगृह के भीतर अनेकानेक तीर्थों से लाया गया विमल जल हो जो कि मल का हरण करता है। इसी प्रकार सुगन्ध और सुवास से युक्त, सुहाने वाला गुनगुना जल भी हो जो ऊपर डालने पर सुखदायक लगे। ऐसे जल को धातु के कूर्परगादि पात्रों में भरा रहना चाहिए। इसी प्रकार जल सोने से बने हुए कलशों को प्रिय रमणियां अपने हाथों में उठाएं। वे ऐसे स्वर्णकलशों से राजा के कुम्भ - स्नान की शोभा बनाएं।

यहां स्नानघर का स्वरूप इस प्रकार बताया है कि उसकी संरचना स्तम्भ युक्त हो, यहां अतिशयोक्ति वश सुवर्ण स्तम्भों का उल्लेख है। स्नान के लिए बैठने वाली सुंदर स्फटिक की चौकी का भी उल्लेख किया गया है। यह ग्रंथ लगभग १२ वीं सदी का है। इसमें जिस प्रकार स्नानघर का वर्णन है, उसी प्रकार का मिलता - जुलता स्नानघर का उल्लेख हमें ६ ठीं सदी के कादम्बरी कथामुख में भी मिलता है। 
"स्वेदजलकणिकासन्ततिभिरलङिकयमाणमूर्तिः इतस्ततः स्नानोपकरणसम्पादनसत्वरेण पुरः प्रधावता परिजनेन तत्कालं विरलजनेऽपि राजकुले समुत्सारणाधिकारमुचितमाचरद्भिः दण्डिभिरुपदिश्यमानमार्गः, विततसितवितानाम्, अनेकाचारणगणनिबध्यमानमण्डलाम्, गन्धोदकपूर्णकनकमयद्रोणीसनाथमध्याम्, उपस्थापितस्फाटिकस्नानपीठाम्, एकान्तनिहितैरतिसुरभिगन्धसलिलपूर्णैः परिमलावकृष्टमधुकरकुलान्धकारितमुखैरातपभयान्नीलकर्पटावगुण्ठितमुखैरिव स्नानकलशैरुपशोभितां स्नानभूमिमगच्छत्।" - कादम्बरी - कथामुखम्, शूद्रकस्नानवर्णनम्, पृष्ठ सं. ११४ 
अर्थात् पसीने की जलबिंदु परम्पराओं द्वारा विभूषित किये जाते हुए शरीर वाला, इधर - उधर स्नानोपकरण जुटाने में जल्दबाजी करते हुए सामने दौडधूप करने वाले सेवक द्वारा तथा उस समय राजभवन में गिने - चुने लोगों के ही बीच रहने पर भी तितर - बितर करने के अधिकार का भलीभांति पालन करने वाले दण्डधारियों द्वारा निर्दिष्ट किये जाते हुए मार्ग वाला वह राजा तने हुए सफेद तम्बू वाली, असंख्य बन्दीजनों द्वारा बनाई गई परिधि वाली, सुरभित जल से परिपूर्ण सुवर्णमयी जलकुण्डिका से अलंकृत मध्यभाग वाली, विन्यस्त कर दी गई स्फटिकमणिनिर्मित स्नान की चौकी वाली, एकान्तप्रदेश में रखे गए - अत्यंत सुगन्धित वास वाले जल से परिपूर्ण तथा सुगन्ध से आकृष्ट किये गए भ्रमर - समूह से अंधकारित मुखों वाले अतएव मानो आतपभय से काले कपड़ों से ढकें मुखों वाले स्नानोपयोगी कलशों से सुशोभित स्नानभूमि में पहुंचे।

यहां स्नानघर का वर्णन मानसोल्लास जैसा ही है, यहां भी तीर्थों से लाएं गए सुगंधित और स्वच्छ जल को कलशों में संरक्षित करने का उल्लेख है। साथ ही मानसोल्लास की तरह ही स्नान के लिए बैठने वाली चौकी को स्फटिक का बनाने का वर्णन है। अंतर यह है कि मानसोल्लास में सुवर्ण जडित कलशों का उल्लेख है किंतु कादम्बरी में विभिन्न प्रकार के कलशों का उल्लेख है, जिसमें स्नानोपयोगी जल संरक्षित किया जाता था। इन कलशों का वर्णन इस प्रकार है - 
"......काश्चिन्मरकतकलस.....काश्चिद्रजतकलसहस्ता.....स्फाटिकैःकलसैस्तीर्थजलेन...." - कादम्बरी - कथामुखम्, शूद्रकस्नानवर्णनम्, पृष्ठ. ११९
अर्थात् वाराङ्गनाओं ने मरकत आदि मणियों से जड़ित, रजत आदि से जड़ित, स्फाटिक आदि से जड़ित तीर्थों से लाएं गए सुगंधित जलों से राजा को स्नान कराया।

इस प्रकार मानसोल्लास और कादम्बरी में हमें प्राचीन स्नानशाला का स्वरूप प्राप्त होता है। जिसमें सुंदर स्तम्भ हैं, बैठने की स्फटिक से निर्मित चौकी है और अलंकृत कलश हैं, जिनमें सुगंधित तीर्थ जल हैं। 
 सौभाग्य से ऐसी संरचना का चित्रण हमें किसी चित्रकार या संगणक के माध्यम से बनवाने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि ऐसा चित्रण हमें चौथी - पांचवीं शताब्दी के अजन्ता की गुफाओं से पहले से ही प्राप्त होती है। 

- Photographic Compendium Of Ajanta Narrative Paintings Vol. 1 : Ajanta Cave No. 1 (Documented according to the Ajanta Corpus of Dieter Schlingloff) , Page no. 146 

यहां चित्र में देखा जा सकता है कि अजन्ता में बना स्नानगृह, काफी हद तक मानसोल्लास और कादम्बरी में वर्णित स्नानगृह जैसा ही है। इसमें आप स्तम्भों की रचना, स्फटिक निर्मित स्नान चौकी और तीर्थों से लाएं गए जलों से भरपूर मण्यादि से जड़ित सुंदर कलशों को देख सकते हैं। इस चित्र में वर्णित कलशों की आकृति भी अत्यंत महत्वपूर्ण है, यहां हम उपरोक्त चित्र से ही कलशों की आकृतियों को विशेषकर दिखा रहे हैं।



यह कलश सामान्य जल पीने वाले कलशों से थोड़ा अलग हैं। इनका मुख आगे से पतला तथा गर्दन थोड़ी ऊपर को है। ऐसे कलशों की आकृतियों की तुलना चंद्रकेतु गढ़ से प्राप्त २०० ईसापूर्व के कलशों से की जा सकती है - 


- Chandraketugarh : A Treasure - House Of Bengal Terracottas, fig. C936 - C937, Page no. 344

सम्भवतः चंद्रकेतु गढ़ के कलश भी स्नान के लिए ही हों! लेकिन अजन्ता के चित्र, मानसोल्लास और कादम्बरी में हमें कलशों का सुंदर, मणि आदि जड़ित और सुवर्ण - रजत जड़ित होने का वर्णन प्राप्त होता है। ऐसे अलंकृत कलशों का निर्माण सिंधु सभ्यता के दौरान से ही होता आया है। 

- New Harappan Discoveries In North Rajasthan And Punjab , plt. 144, Page no. 151 

ऊपर कालिबंगा से प्राप्त एक मिट्टी के कलश का खंड दिया गया है, जिस पर सेलखडी से बने मणियों या मनकों की सजावट की गयी है। इससे ज्ञात होता है कि कादम्बरी के वर्णन के समान ही, सिंधु सभ्यता के लोग भी कलशों को मनकों आदि से जड़ित करवाते थे या अलंकृत और सुंदर बनवाते होगें। सम्भवतः ऐसे अलंकृत कलशों का प्रयोग स्नानघरों में सुगंधित जलों के संचयन में भी करते हों। किंतु इससे स्पष्ट है कि कलशों पर मणियों, स्फटिकों और मनकों की सजावट का कार्य भारतीय शिल्पी सिंधु सभ्यता से बाणभट्ट (६ ठीं सदी) और मल्ल सोमेश्वरदेव (लगभग १२ वीं सदी) तक भी करते रहे हैं।

 अतः हम कह सकते हैं कि हमारी सांस्कृतिक निरन्तरता अति प्राचीन है तथा प्राचीन स्नानगृह का जो चित्रित स्वरुप हमें अजन्ता की गुफा के प्राचीन चित्रों में मिलता है, वैसा ही लिखित वर्णन हमें मानसोल्लास और कादम्बरी जैसे परवर्ती ग्रंथों में भी मिलता है। इस प्रकार हम प्राचीन साहित्य और कला में एक अद्भुत समानता और सम्बद्धता देखते हैं।

संदर्भित स्रोत - 

(1) पातञ्जल - योगदर्शन भाष्यम् - अनु. आचार्य राजवीर शास्त्री

(2) सुश्रुत संहिता, जिल्द २, चिकित्सा स्थान - टीकाकार राजवैद्य पं. मुरलीधरजी शर्मा फर्रुखनगर निवासी 

(3) Gods, Men and and Women : Gender and Sexuality in Early Indian Art - Seema Bawa 

(4) मानसोल्लासः (भारतीय सांस्कृतिक विश्वकोश) द्वितीयो भागः - अनु. डॉ. श्रीकृष्ण 'जुगनू' 

(5) कादम्बरी - कथामुखम् - व्याख्याकार डॉ. राजेन्द्र मिश्र और डॉ. गिरिजाशङ्कर चतुर्वेदी

(6) Photographic Compendium Of Ajanta Narrative Paintings Vol. 1 : Ajanta Cave No. 1 (Documented according to the Ajanta Corpus of Dieter Schlingloff) - Rajesh Kumar Singh

(7) Chandraketugarh : A Treasure - House Of Bengal Terracottas - ENAMUL HAQUE

(8) New Harappan Discoveries In North Rajasthan And Punjab - Dr. D.P. Sharma


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