प्राचीन भारत में ग्राम देव - देवी पूजन (साहित्यिक, अभिलेखीय और स्थापत्य के संदर्भ में)

 भारत में प्राचीन काल से ही विभिन्न देवी देवताओं की पूजा का विधान रहा है। प्राकृतिक - दिव्य शक्तियों पर मनुष्य का विश्वास आदिम काल से ही देखा जाता है। हम लोग जिनके द्वारा लाभ प्राप्त करते हैं, उनमें देवत्व का अध्यारोपण कर लेते हैं। देवों के सम्बंध में यद्यपि अनेकों धारणाएं प्रचलित है। उनके अनेकों प्रकार भी हैं। किंतु हम ग्राम देव या देवी की बात करेगें। 

भारत की संस्कृति का मूल हमें हमारे प्राचीन ग्राम में मिलता है। इन ग्रामों में आज भी ग्राम देव या ग्राम देवी के मंदिर व स्थान प्राप्त होते हैं। प्रत्येक ग्राम के अपने - अपने ग्राम देवी या देवता होते हैं। यह देव - देवी अनेकों बार हिंदू मान्यताओं के प्रचलित देव‌ या देवी ही होते हैं। जैसे - दुर्गा, शिव, गणेश, हनुमान, भैरव, राम, कृष्ण, सीता, यक्ष, गंधर्व, विधाधर आदि, अनेकों जगह लोक देव - देवी होते हैं, कुछ जगहों पर पूर्वज या यौद्धा होते हैं तो कुछ जगह कुछ प्राकृतिक शक्तियों को ही उस स्थान का ग्राम, गृह, कुल देव मान लिया जाता है।  ग्राम देवता या देवी के साहित्यिक संदर्भ हमें पुराणों से प्राप्त होते हैं।

स्कन्द पुराण के अनुसार कलियुग का अति लक्षण ग्रामदेवता की पूजा का लोप होना है - 

कलौ दशसहस्राणि विष्णुस्त्यजति मेदिनीम् ।।दर्द्धं जाह्नवीतोयं तदर्द्धं ग्रामदेवताः ।। ३२ ।। - स्कन्द पुराण, खण्डः २ (वैष्णवखण्डः)/कार्तिकमासमाहात्म्यम्/अध्यायः ३५

इसी प्रकार देवी भागवत महापुराण में भी कलियुग के अति होने पर समस्त शुभ क्रियाओं, देवों के लोप के साथ - साथ ग्राम देवताओं के लोप का कथन है - 

सन्तश्च सत्यधर्मश्च वेदाश्च ग्रामदेवताः ।व्रतं तपश्चानशनं ययुस्तैः सार्धमेव च ॥ १५ ॥ - देवीभागवतपुराणम्/स्कन्धः ०९/अध्यायः ०८

इन कथनों में भविष्यफल द्वारा ग्राम देवता पूजन का महत्व प्रतिपादित किया है। इससे यह भी ज्ञात होता है कि ग्राम देवता पूजा के लोप को पुराण कार किसी भी प्रकार से बचाना चाहते थे।

ब्रह्मवैवर्त पुराण के एक कथन से ज्ञात होता है कि गांव - गांव में ग्राम देवता की स्थापना होती थी।

ग्रामे ग्रामे यथा सन्ति सर्वत्र ग्रामदेवताः ।। ४ ।। - ब्रह्मवैवर्तपुराणम्/खण्डः ४ (श्रीकृष्णजन्मखण्डः)/अध्यायः ०६८

ग्राम देव के समान ही गांव - गांव की ग्रामदेवी भी होती थी, क्योंकि हिंदू धर्म में देव के समान ही देवियां भी होती हैं जो कि एक प्रकार से देव शक्तियों का स्त्री प्रतिनिधित्व को प्रतिपादित करते हैं। 

अभिलेखीय संदर्भों के आधार पर ग्राम देवी पूजन की मान्यता हमें कुषाण काल में मथूरा से प्राप्त अभिलेख पर प्राप्त होती है।


- Epigraphia Indica, Vol IX (1907 - 08), page no. 238ff

यह अभिलेख अभी ब्रिटिश संग्रहालय में सुरक्षित है, इसका मूल फलक इस प्रकार है - 

- Epigraphia Indica, Vol IX (1907 - 08), page no. 240ff, 

इसकी अंतिम पंक्ति में ग्राम देवी के लिए मंदिर (स्थल) निर्माण का और ग्राम देवी के द्वारा प्रिय (कृपा) प्राप्ति की कामना का कथन है। 


अभिलेख का समय कनिष्क कालीन है, जैसा कि दूसरी पंक्ति - कानिष्कस्य संवत्सर से स्पष्ट है। चौथी और पांचवीं पंक्ति में नवमिकाय नामक स्थान पर ग्राम देवी के स्थल निर्माण और ग्राम देवी से कृपा प्राप्ति का कथन है, इनमें कुछ अक्षर अस्पष्ट हो गये हैं - उतरस्य नवमिकाय ह(र्)म् (य) न (दा)तां प्रियतां देवी ग्राम स् (य)
(उत्तरस्य नवमिकाय हर्म्यनं दातां, प्रियतां देवी ग्रामस्य) अर्थात् नवमिका के उत्तर में ग्राम देवी के लिए मंदिर का दान किया गया और ग्राम देवी सबके लिए प्रिय होवें या सब पर कृपा करें। 

इस प्रकार अभिलेखीय प्रमाण से स्पष्ट है कि ग्राम देव और ग्राम देवी की पूजा की मान्यता कुषाण काल में भी थी। ब्रह्मवैवर्त पुराण में देवी दुर्गा को ग्रामदेवी और गृह्य देवी कहा गया है - 

ग्रामे ग्रामे ग्रामदेवी गृहदेवी गृहे गृहे ।।
सतां कीर्त्तिः प्रतिष्ठा च निन्दा त्वमसतां सदा ।। १९ ।। - ब्रह्मवैवर्तपुराणम्/खण्डः २ (प्रकृतिखण्डः)/अध्यायः ६६

मथूरा क्षेत्र से हमें अनेकों कुषाणकालीन मिट्टी की देवी महिषासुरमर्दिनी (दुर्गा) की अनेकों प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं। जिनमें से शोंख से प्राप्त एक प्रतिमा इस प्रकार है - 
- Excavation at Sonkh, fig. 124, page no. 134

यहां उदाहरण रुप एक प्रतिमा दिखलाई गई है, अन्यथा मथूरा से ग्राम - ग्राम कुषाणकालीन महिषासुरमर्दिनी की अनेकों प्रतिमाएं प्राप्त हुई है। इससे इस बात की सम्भावना होती है कि कुषाण काल में भी दुर्गा जी की ग्राम देवी या गृह देवी के रुप में मान्यता थी।

ग्राम देवी और देवता के छोटे - बड़े मंदिर यद्यपि आज भी गांव - गांव मिलते हैं किंतु इनके निर्माण का विशेष शास्त्रीय विवेचन हमें प्राप्त नहीं होता है। अभिलेख से स्पष्ट है कि कुषाण काल में भी ग्राम देव या देवी के लिए स्थल का निर्माण होता था किंतु इसकी बनावट उस समय किस प्रकार की रही होगी? इसका एक अनुमान हमें मथूरा, तक्षशिला, कौशांबी आदि स्थलों से प्राप्त इन छोटे - छोटे मंदिर के नमूनों से होता है - 


- Excavation at Sonkh, fig.6, page 198 

इसी प्रकार तक्षशिला से प्राप्त एक अन्य आकृति को भी देखते हैं - 


- EARLY INDIAN MOULDED TERRACOTTA THE EMERGENCE OF AN ICONOGRAPHY AND VARIATIONS IN STYLE, circa Second Century BC to First Century AD, vol 2, fig. 3.2 

यह आकृतियां पूर्व कुषाण काल से कुषाण काल तक की हैं। इनमें हमें प्राचीन कच्चे या ग्रामीण मंदिर, देवी स्थल का एक नमूना दिया गया है। जिसे देख हम अनुमान कर सकते हैं कि प्रायः ग्राम देव या देवी के स्थल (मंदिर) भी इसी प्रकार से बनते होगें। इन चित्रों के अनुसार इनमें चारों तरफ प्राकार (दीवार) है जो कि मिट्टी , ईंट या पाषाण अथवा गोबर से लीपकर बनाई जाती थी, इन पर दीपकों को भी स्थापित किया गया है। चार दीवारी के भीतर द्वि या बहुमंजिला सीढिदार भवन या मंदिर बनता था, जिसके अंदर‌ या बाहर मातृका की प्रतिमा होती थी। यह सम्पूर्ण निर्माण गोबर , गार से बनी कच्ची दीवारों का होता होगा जो कि स्पष्ट रुप में ग्राम प्रभाव को प्रकट करता है। 

इन प्रमाणों के आधार पर हम कह सकते हैं कि ग्राम देव और देवी की पूजा का प्रचलन कुषाण काल से पूर्व से ही आजतक चला आ रहा है। यह हमारी प्राचीन सतत् परम्पराओं का एक उदाहरण है। 

संदर्भ स्रोत - 
1) स्कन्द पुराण - विकिस्रोत

2) देवीभागवत पुराण - विकिस्रोत

3) ब्रह्मवैवर्त पुराण - विकिस्रोत

4) Epigraphia Indica, Vol IX (1907 - 08)

5) Excavation at Sonkh - Herbert Hartel

6) EARLY INDIAN MOULDED TERRACOTTA THE EMERGENCE OF AN ICONOGRAPHY AND VARIATIONS IN STYLE, circa Second Century BC to First Century AD - Naman Parmeshwar Ahuja 







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